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क्यों हम चाहकर भी अपने पुराने मेंटल पैटर्न नहीं बदल पाते



पुराने मेंटल पैटर्न्स और सबकॉन्शियस माइंड की अदृश्य पकड़


क्या आपने कभी महसूस किया है कि हम दिल से बदलाव चाहते हैं, पूरी कोशिश करते हैं, संकल्प लेते हैं, लेकिन कुछ ही समय बाद फिर उसी पुराने व्यवहार, वही सोच और वही भावनात्मक प्रतिक्रियाओं में लौट आते हैं? बार-बार वही गलतियां दोहराना, वही इमोशनल रिएक्शंस देना और अंत में खुद को ही दोषी ठहराना—यह अनुभव आज लगभग हर व्यक्ति की जीवन-यात्रा का हिस्सा बन चुका है।


प्रश्न यह नहीं है कि हम बदलना क्यों नहीं चाहते। वास्तविक प्रश्न यह है कि हम बदल क्यों नहीं पाते।


आधुनिक न्यूरो साइंस और मनोविज्ञान इस रहस्य की ओर स्पष्ट संकेत करता है। शोध बताते हैं कि हमारे जीवन के लगभग 95 प्रतिशत निर्णय, भावनाएं और प्रतिक्रियाएं हमारे सबकॉन्शियस माइंड से संचालित होती हैं। यानी हम जिसे अपनी सोच समझते हैं, वह वास्तव में वर्षों पहले बनी मानसिक प्रोग्रामिंग का परिणाम होती है।


बचपन में बनती है जीवन की स्क्रिप्ट


हार्वर्ड और स्टैनफोर्ड जैसी संस्थाओं के शोध यह दर्शाते हैं कि इंसान के विश्वासों और भावनात्मक ढांचे का लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा सात वर्ष की उम्र से पहले बन जाता है। बचपन में देखी गई परिस्थितियां—माता-पिता के आपसी संबंध, आर्थिक तनाव, भावनात्मक सुरक्षा या उसका अभाव, आलोचना, तुलना या उपेक्षा—ये सभी हमारे सबकॉन्शियस में गहराई से अंकित हो जाते हैं।


बचपन में जो भावनाएं बार-बार महसूस की जाती हैं, वही आगे चलकर जीवन के पैटर्न बन जाती हैं। यदि किसी ने असुरक्षा देखी, तो बड़ा होकर वह अनजाने में असुरक्षा को ही दोहराता है। यदि किसी ने संघर्ष देखा, तो सफलता भी उसे असहज लगने लगती है।


यही कारण है कि कई लोग कहते हैं—“मैं चाहकर भी बदल नहीं पा रहा हूं।” वास्तव में वे अपने सबकॉन्शियस पैटर्न्स से जूझ रहे होते हैं।


माइंड क्यों दोहराता है वही रास्ता


न्यूरो साइंस बताती है कि दिमाग हमेशा उसी रास्ते पर चलना पसंद करता है जो उसे परिचित लगता है, भले ही वह रास्ता दर्दनाक ही क्यों न हो। इसे न्यूरल पाथवे कहा जाता है। बार-बार सोचे गए विचार और बार-बार महसूस किए गए इमोशंस दिमाग में स्थायी रास्ते बना लेते हैं।


इसी कारण हम कंफर्ट ज़ोन में नहीं बल्कि फैमिलियर ज़ोन में जीते हैं। माइंड के लिए शांति से अधिक परिचय महत्वपूर्ण होता है।


इमोशनल लूप्स और सेल्फ-सैबोटाज


जब कोई व्यक्ति बार-बार एक ही भावनात्मक स्थिति में फंसता है—जैसे गुस्सा, अपराधबोध, डर या अस्वीकृति—तो वह एक इमोशनल लूप बन जाता है। यह लूप व्यक्ति को वही भावनाएं दोहराने के लिए प्रेरित करता है।


डॉक्टर जो डिस्पेंज़ा के अनुसार, इमोशंस भी केमिकल स्टेट्स होते हैं। बार-बार एक ही इमोशन महसूस करने से शरीर उन्हीं केमिकल्स का आदी हो जाता है। यही कारण है कि कई लोग अनजाने में अपनी ही प्रगति को रोक देते हैं, जिसे सेल्फ-सैबोटाज कहा जाता है।


जब भी जीवन में कोई नया अवसर आता है—नई जिम्मेदारी, बेहतर संबंध या बड़ा लक्ष्य—सबकॉन्शियस माइंड डर, संदेह और टालमटोल के जरिए व्यक्ति को पीछे खींच लेता है।


आइडेंटिटी ट्रैप का जाल


सबसे गहरा पैटर्न तब बनता है जब व्यक्ति अपने पुराने अनुभवों को अपनी पहचान मान लेता है। “मैं ऐसा ही हूं”, “मुझसे नहीं होता”, “मेरी किस्मत खराब है”—ये वाक्य सच्चाई नहीं, बल्कि पुरानी मानसिक कंडीशनिंग होते हैं।


जब कोई विश्वास पहचान बन जाता है, तो दिमाग उसे बचाने के लिए हर प्रयास करता है, चाहे वह पहचान व्यक्ति को कष्ट ही क्यों न दे रही हो।


शरीर भी संकेत देता है


पुराने पैटर्न केवल विचारों में नहीं, शरीर में भी दिखाई देते हैं। लगातार तनाव, सीने में भारीपन, पेट से जुड़ी समस्याएं, अचानक घबराहट या थकान—ये सभी संकेत बताते हैं कि व्यक्ति किसी पुराने भावनात्मक पैटर्न में फंसा हुआ है।


 समाधान: अवेयरनेस से रिप्रोग्रामिंग तक


यह समझना जरूरी है कि पैटर्न स्थायी नहीं होते। न्यूरोप्लास्टिसिटी सिद्ध करती है कि दिमाग किसी भी उम्र में खुद को बदल सकता है।


स्पिरिचुअल और साइंटिफिक दोनों दृष्टिकोण एक ही दिशा में इशारा करते हैं—अवेयरनेस ही परिवर्तन की कुंजी है।


जब व्यक्ति अपने विचारों, भावनाओं और शरीर की संवेदनाओं को बिना प्रतिक्रिया के देखना सीखता है, तो पुराने न्यूरल लूप्स कमजोर होने लगते हैं। विपश्यना और माइंडफुलनेस जैसी विधियां इसी सिद्धांत पर आधारित हैं—सेंसेशन को देखो, रिएक्ट मत करो।


धीरे-धीरे नए न्यूरल पाथवे बनते हैं और पुरानी कंडीशनिंग टूटने लगती है।

 परिवर्तन का वास्तविक मार्ग


दैनिक जीवन में छोटे-छोटे अभ्यास—जैसे अवेयरनेस जर्नलिंग, माइक्रो-पॉज़, श्वास पर ध्यान, ध्यान अभ्यास और नई पहचान को consciously अपनाना—सबकॉन्शियस माइंड को रीप्रोग्राम करना शुरू कर देते हैं।


परिवर्तन किसी एक दिन में नहीं होता, लेकिन एक दिन अवश्य शुरू होता है।


 निष्कर्ष


हम अपने विचार नहीं हैं, हम अपने डर नहीं हैं, हम अपने पुराने अनुभव भी नहीं हैं। हम वह चेतना हैं जो इन सबको देख सकती है। जैसे ही व्यक्ति यह समझ लेता है, वहीं से उसकी वास्तविक स्वतंत्रता शुरू होती है।


पुराने पैटर्न टूटते हैं। दिमाग बदलता है। और जीवन, धीरे-धीरे ही सही, लेकिन नई दिशा में आगे बढ़ने लगता है।


यही जागरूकता जीवन को दोहराव से निकालकर विकास की ओर ले जाती है।

अर्चना सिंह 
मानस चिकित्सा विशेषज्ञ 
NLP trainer