लेटेस्ट खेल समाचार कोरोना देश राज्य क्राइम बिजनेस दुनिया नॉलेज ऑटो दुर्घटना ट्रेंडिंग लाइफ स्टाइल धर्म करियर टेक मनोरंजन

भौतिक गुलामी से ज्यादा खतरनाक है मानसिक गुलामी




गुलामी की मानसिकता को निकाल पाना सहज नहीं होता है.

शारीरिक गुलामी की जंजीरे तो एक बार तोड़ी जा सकती

Advertisement



है लेकिन मानसिक गुलामी की जंजीरों को तोड़पाना बहुत कठिन कार्य है क्योंकि एक तो यह अदृश्य होती हैं दूसरी कई बार झूठे विकास, लोकलुभावन फूलों से सजी होती है जब सैकड़ों-सैकड़ों वर्ष कोई देश/ समाज/ जाति गुलाम रह लेती है तो यह और भी कठिन हो जाता है.

(भारत लगभग १००० साल गुलाम रहा है) 

गुलामी की मानसिकता निकालने के लिए देश/ समाज/जाति को नैतिकता से विभूषित नेतृत्व की ज़रूरत होती है, जिसे नेता कहते हैं। कदाचित् नेता का ही अभाव हो तो सदियों तक भी गुलामी की मानसिकता नहीं निकल पाती है
इसका ज्वलंत उदाहरण भारत है, जहाँ 73 साल के बाद भी गुलामी की मानसिकता नहीं निकल पाई है
किसी देश को भौतिक, आर्थिक और मानसिक गुलामी से उबारने में नेताओं और नौकरशाहों यानी कि अड्मिनिस्ट्रेटिव सेट अप की अहम भूमिका होती है इनका स्वतंत्र देश के अनुरूप होना अनिवार्यता है.
अपने अंतर्मन में, अपने इर्दगिर्द झाँके,भली भाँति स्थिति का जायज़ा लें, और अगर गुलामी की मानसिकता है तो उसका उन्मूलन करने का प्रयास करना चाहिए.
कोई भी देश सही मायनो में तभी आज़ाद होता, तभी प्रगति कर सकता है जब उसकी संतति केवल भौतिक ही नहीं बल्कि मानसिक और आर्थिक रूप से भी आज़ाद हो.
यह दुर्भाग्य ही है कि आज़ाद भारत को नेता जी सुभाषचंद्र बोस के स्तर का एक भी नेता नहीं मिला, और उसका परिणाम सामने है.
अपने देश को छोड़ अमेरिका आदि देशों में जाने/ बस जाने की मानसिकता आज़ादी के 73 साल बाद भी क्यों, सोचिए?

इम्पोर्टेड सामान के प्रति इतना आकर्षण किस लिए?

अपनी मातृ/ राष्ट्रीय भाषा के प्रति दुराव/ विरोध किंतु विदेशी अँग्रेज़ी भाषा के प्रति ऐसा नहीं, क्यों?
अँग्रेज़ी/ पब्लिक स्कूलों में हिंदी अथवा अपनी मातृ भाषा बोलने पर पिटाई, यह सब क्या है? जातिवाद का बढ़ता समाज मे जहर, स्वदेशी के बजाय विदेशी को ज्यादा महत्व, युवा वर्ग में टिकटाक, वीडियो गेम आदि का एडिक्शन आदि कुछ ऐसे मानसिक गुलामी की फूलों से सजी बेड़ियां हमें मिल गई हैं जिसका हम अंधाधुंध उपयोग कर शारीरिक, मानसिक दोनों स्तर पर गुलाम से कम नहीं है। 
गैरों के प्रति भी सहिषुण्ता हमारी संस्कृति में है लेकिन अपने से दुराव कितना उपयुक्त है। वर्तमान में वैश्विक महामारी कोरोना ने यह सिद्ध कर दिया है कि अपनी संस्कृति, सभ्यता कितनी उच्चकोटि की है, आज विश्व के समक्ष इतनी बड़ी आबादी वाले देश के बावजूद भी हम साहस और आत्मविश्वास के साथ अन्य देशों से बेहतर लड़ाई लड़ कर दिखा चुके हैं

हमें जाति, सम्प्रदाय, क्षेत्र, पाश्चात्य सभ्यता की मानसिक गुलामी से उठकर भारत के नव निर्माण के लिए सजग नागरिक के रूप में आगे आना होगा और अपनी सदियों की पड़ी आदत को बदलना होगा। आज यह कहना तनिक भी अनुपयुक्त नहीं है कि देश के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने देश को एक, सर्वश्रेष्ठ करने के लिए तमाम ऐसे कार्य किये हैं जिनका परिणाम एक राष्ट्र, सर्वश्रेष्ठ राष्ट्र,उत्कृष्ट राष्ट्र की नींव रखने में सफल हुआ है लेकिन इस कार्य को आगे बढ़ाना हम सभी भारतीयों का कर्तव्य है इसके लिए माताग्रह, पूर्वाग्रह की शिकार राजनीति के लोगों को भारत को पंडिस्तान,यादविस्तान, दलिस्तान आदि आदि बनाने से रोकना होगा जिंदगी सामूहिक है। जिंदगी सहजीवन है। हम साथ इकट्ठे खड़े हैं। दुख में, पीड़ा में, सुख में, आनंद में, हम सब सहभागी हैं। इस लिए देश मे रहने वाले प्रत्येक नागरिक की देश को एक, अखण्ड बनाने की जिम्मेदारी है यह सिर्फ कुछ नेताओं और कुछ चिंतकों की नही है इसलिए जिम्मेवारी कहीं और खोजने अगर हम गए तो वह जिम्मेवारी से बचने का रास्ता है। बचने से बदलाहट नहीं होगी। हमे स्वीकार करना ही होगा--हम ही जिम्मेवार हैं। और यह विचार जब आता है तो यह स्वीकृति क्रांति शुरू कर देती है, क्योंकि जब मुझे लगता है कि मैं जिम्मेवार हूं तो फिर मेरे हाथ उस सहयोग से पीछे हटने लगते हैं, जो देश में बुराई,अत्याचार, अपराध, दुराव,लाता है। जब मुझे लगता है कि मैं जिम्मेवार हूं, तब मैं पीछे हटने लगता हूं--कम से कम अपने सहयोग को तो अलग कर लूं। कम से कम मैं तो इस भांति जीऊं कि मैं इस देश को बदलने के लिए कुछ छोटा सा रास्ता बना सकू। और अगर एक-एक आदमी जिम्मेदारी समझे तो यह देश बदल सकता है। बदलने की गति धीमी है क्योंकि जिम्मेवारी सदा दूसरे पर डालने की हमारी आदत रही है । हमें अब एक सजग नागरिक की भूमिका निभाते हुए अपने आज़ादी के वीर सपूतों का सपना साकार करना होगा इसके लिए हमें जाति नहीं राष्ट्र को प्रथम मानना होगा वरना यहाँ तक आने के बाद भी हम उन्हीं अग्रेजो की बनाई फुट डालो राज करो की रणनीति का शिकार हो जाएंगे। आप को शायद यह जानकर आश्चर्य हो कि आज़ादी के बाद से इस देश में धर्म,जाति, क्षेत्र, सम्प्रदाय के नाम पर जितनी मौते हुई हैं उससे देश के वीर सपूतों की आत्मा को बहुत कष्ट हुआ होगा।आज वक्त है कि हम मानसिक गुलामी की जंजीरो को तोड़ दे। इस लिए हमें मानसिक गुलामी की उन जंजीरों जहाँ पर हम अंग्रेजी, पाश्चात्य सभ्यता, इम्पोर्टेड सामान, विदेश जाना, जातिवाद पर प्रहार करना होगा और हमें स्वदेशी, आत्मनिर्भर भारत जैसे विचारों को अपनाना होगा तभी हम एक नए युग का प्रारंभ कर पाएंगे। हम दूसरे के मामले में सहिष्णुता अवश्य दिखाएंगे लेकिन अपनी संस्कृति, संस्कार, सभ्यता से दुराव नहीं प्यार करेंगे, गर्व करेंगे। जातिवाद,क्षेत्रवाद, को त्यागकर राष्ट्रवाद,स्वदेशी को प्रथम स्थान देगे

Advertisement