ऑटोफेजी: शरीर की आत्म-स्वच्छता प्रणाली और आधुनिक जीवनशैली
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| लेख: डॉ. स्वामी बाबा भक्ति प्रकाश अथर्ववेद, शाश्वत चिकित्सा पद्धति |
आधुनिक समय में एक बड़ा प्रश्न यह है कि चिकित्सा विज्ञान की निरंतर प्रगति के बावजूद बीमारियाँ तेजी से क्यों बढ़ रही हैं। इसका उत्तर केवल बाहरी संक्रमणों या अनुवांशिक कारणों में नहीं, बल्कि हमारी जीवनशैली, खानपान और शरीर की प्राकृतिक प्रक्रियाओं से दूरी में छिपा है। मानव शरीर मूल रूप से इतना सक्षम है कि वह स्वयं को साफ़ और मरम्मत करने की शक्ति रखता है। इसी प्राकृतिक प्रक्रिया को विज्ञान की भाषा में ऑटोफेजी कहा जाता है।
ऑटोफेजी एक जैविक प्रक्रिया है, जिसमें शरीर की कोशिकाएँ स्वयं के भीतर मौजूद क्षतिग्रस्त, कमजोर या अनुपयोगी कोशिकाओं को पहचान कर उन्हें नष्ट करती हैं और उनके घटकों का पुनः उपयोग करती हैं। यह प्रक्रिया शरीर में निरंतर चलती रहती है और रोगों से बचाव में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
वैज्ञानिक दृष्टि से ‘ऑटो’ का अर्थ स्वयं और ‘फेजी’ का अर्थ खाना है, अर्थात स्वयं को खाना। सुनने में यह शब्द भले ही असहज लगे, परंतु यह शरीर की एक अत्यंत आवश्यक और लाभकारी प्रणाली है। इस प्रक्रिया के माध्यम से शरीर पुराने या खराब सेल्स को हटाकर नए और स्वस्थ सेल्स के निर्माण में सहायता करता है।
शोध बताते हैं कि औसतन मानव शरीर में 30 से 40 ट्रिलियन कोशिकाएँ होती हैं और प्रतिदिन अरबों नई कोशिकाएँ बनती हैं। यदि ऑटोफेजी की प्रक्रिया बाधित हो जाए, तो शरीर में खराब कोशिकाओं का जमाव होने लगता है, जो अनेक रोगों का कारण बन सकता है। इसी कारण इसे शरीर की ‘सेल्फ क्लीनिंग सिस्टम’ भी कहा जाता है।
ऑटोफेजी पर वैज्ञानिक अनुसंधान को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिली है। वर्ष 2016 में जापानी वैज्ञानिक योशिनोरी ओहसुमी को इस विषय पर शोध के लिए चिकित्सा का नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। इससे पहले भी लाइसोसोम और सेलुलर रिसाइक्लिंग पर कार्य के लिए वैज्ञानिकों को नोबेल सम्मान मिल चुका है। यह दर्शाता है कि ऑटोफेजी कोई वैकल्पिक अवधारणा नहीं, बल्कि प्रमाणित जैविक सत्य है।
भारतीय परंपरा में उपवास, संयम और सीमित आहार को सदियों से महत्व दिया गया है। आयुर्वेद और धर्मग्रंथों में व्रत और उपवास का उद्देश्य केवल धार्मिक नहीं, बल्कि शरीर को विश्राम देना भी रहा है। आधुनिक विज्ञान अब यह स्वीकार कर रहा है कि खाली पेट या सीमित भोजन की अवस्था में ऑटोफेजी अधिक सक्रिय होती है।
इंटरमिटेंट फास्टिंग को आज ऑटोफेजी को बढ़ाने का एक प्रभावी तरीका माना जा रहा है। इसमें भोजन के बीच एक निश्चित समय का अंतर रखा जाता है, जिससे शरीर को ऊर्जा उत्पादन के लिए पुराने और क्षतिग्रस्त सेल्स का उपयोग करने का अवसर मिलता है। इससे न केवल मेटाबॉलिज्म सुधरता है, बल्कि कोशिकाओं की गुणवत्ता भी बेहतर होती है।
कुछ शोधों में यह भी पाया गया है कि ऑटोफेजी की सक्रियता से डायबिटीज, मोटापा, उच्च रक्तचाप, न्यूरोडीजेनेरेटिव रोगों और उम्र से जुड़ी समस्याओं के जोखिम को कम करने में सहायता मिल सकती है। हालांकि, यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि ऑटोफेजी किसी भी गंभीर बीमारी का एकमात्र उपचार नहीं है। उन्नत अवस्था की बीमारियों में चिकित्सकीय सलाह और उपचार अनिवार्य है।
ऑटोफेजी को बढ़ाने के अन्य तरीकों में संतुलित व्यायाम, पर्याप्त नींद, तनाव प्रबंधन और प्राकृतिक आहार शामिल हैं। हल्दी, अंगूर, आंवला, ग्रीन टी जैसे खाद्य पदार्थों में मौजूद तत्व इस प्रक्रिया को सहयोग दे सकते हैं। साथ ही, अत्यधिक भोजन, जंक फूड, नशे और अनियमित जीवनशैली ऑटोफेजी को कमजोर करती है।
यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि गर्भवती महिलाएँ, गंभीर रोगों से पीड़ित व्यक्ति या अत्यधिक कमजोर स्वास्थ्य वाले लोग किसी भी प्रकार का उपवास या आहार परिवर्तन चिकित्सकीय परामर्श के बिना न करें।
निष्कर्षतः, ऑटोफेजी शरीर की एक स्वाभाविक और अनिवार्य प्रक्रिया है, जिसे समझना और सहयोग देना आधुनिक स्वास्थ्य की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है। संयमित जीवनशैली, संतुलित आहार और प्रकृति के नियमों के अनुरूप जीवन जीना ही दीर्घकालिक स्वास्थ्य का आधार है।
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